संस्कृत के पर्यायवाची शब्द
# | संस्कृत शब्द | पर्यायवाची |
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1. | स्वर्गः | नाकः, सुरलोकः, देवलोकः, त्रिदशालयः |
2. | देवता | अमरः, निर्जरः, देवः, सुरः आदित्यः |
3. | असुरः | दैत्यः, दनुजः, दून्द्रारिः, दानवः, राक्षसः |
4. | ब्रह्मा | आत्मभूः, सुरज्येष्ठः, पितामहः, हिरण्यगर्भः |
5. | विष्णु | नारायणः, दामोदरः, गोविन्दः, गरुड़ध्वजः |
6. | कामदेवः | मदनः, मन्मथः, मारः, प्रद्युम्नः, कन्दर्पः। |
7. | लक्ष्मी | पद्मालया, पद्मा, कमला, श्री, हरिप्रिया |
8. | गरुडः | ताः, वैनतेयः, खगेश्वरः, नागान्तकः |
9. | शिवः | शम्भु, पशुपतिः, महेश्वरः, शंकरः, चन्द्रशेखरः। |
10. | पार्वती | उमा, कात्यायनी, गौरी, हैमवती, शिवा, भवानी । |
11. | गणेशः | विनायकः, गणाधिपः, एकदन्तः, लम्बोदरः, गजान |
12. | इन्द्रः | मरुत्वान्, मधवा, पुरन्दरः, वासवः, सुरपतिः |
13. | नारदः | तुम्बुरू, भरतः, देवलः, देवर्षिः |
14. | अमृत | पीयूषम्, सुधा, अमिय |
15. | अग्नि | वैश्वानरः, वह्निः, धनञ्जयः, जातवेदा, पावकः । |
16. | यमराजः | धर्मराजः, परेतराट्, कृतान्तः, शमनः, कालः। |
17. | वायुः | गन्धवाहः, अनिलः, समीरः, मारुतः, समीरण |
18. | शीघ्रम् | त्वरितम्, क्षिप्रम्, द्रुतम्, सत्वरं, चपलम् । |
19. | लगातार | सतत, अनारत, अश्रान्त, अविरत, अनवरत |
20. | कुबेरः | यक्षराट्, धनदः, किन्नरेशः, नरवाहनः श्रीदः |
संस्कृत श्लोक 1.
काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च,
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणः॥ 1 ॥
अर्थ– कौए जैसा प्रयत्न, बगुले जैसा ध्यान, कुत्ते जैसी नींद, कम खाना और घर को छोड़। देना–विद्यार्थी के यह पाँच लक्षण होते हैं।
संस्कृत श्लोक 2.
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्,
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥ 2 ॥
अर्थ– अठारह पुराणों में व्यासजी के दो वचन सार के हैं–परोपकार करो-पुण्य के लिए है॥ दूसरे को पीड़ा पहुँचाना-पाप के लिए है।
संस्कृत श्लोक 3.
विद्वित्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन्,
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥ 3 ॥
अर्थ– विद्वान् होना और राजा होना कभी भी समान नहीं है क्योंकि राजा की पूजा तो केवल अपने ही राज्य में होती है, जबकि विद्वान् की पूजा सब जगह होती है।
संस्कृत श्लोक 4.
एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम्,
सहैव दशभिः पुत्रैः भारं वहति रासभी॥ 4 ॥
अर्थ– एक अच्छा पुत्र होने से शेरनी वन में निडर होकर सोती है। परन्तु गधी दसियों पुत्रों के होने पर भी बोझा ढोती है।
संस्कृत श्लोक 5.
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः,
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥ 5 ॥
अर्थ– कार्य परिश्रम से ही पूर्ण होते हैं, मन में सोचने से नहीं। जैसे सोते हुए सिंह के मुख में हिरण नहीं आते हैं।
Sanskrit Shloka 6.
गच्छन् पिपीलिको याति योजनानां शतान्यपि,
अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति॥ 6 ॥
अर्थ– चलती हई चींटी भी सैकड़ों योजन चली जाती है, जबकि न चलने वाला गरुड़ एक कदम भी नहीं चल पाता।
Sanskrit Shloka 7.
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः,
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥ 7 ॥
अर्थ– सभी को प्रणाम करने वालों तथा वृद्धों की नित्य सेवा करने वाले पुरुषों की आयु, विद्या, यश और बल ये चार वस्तुएँ बढ़ती हैं।
Sanskrit Shloka 8.
अपि स्वर्णमयीलङ्का न मे लक्ष्मण रोचते,
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ 8 ॥
अर्थ– हे लक्ष्मण ! यद्यपि यह लंका सोने की है। फिर भी यह मुझे अच्छी नहीं लगती क्योंकि माता तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है ?
Sanskrit Shloka 9.
दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते,
यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा॥ 9 ॥
अर्थ– जिस प्रकार दीपक अन्धकार को खाकर नष्ट करक. काजल पैदा करता प्रकार जैसा अन्न खाया जाता है, उसी प्रकार की सन्तान पैदा होती है।
Sanskrit Shloka 10.
सत्यं ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात् ब्रूयात् सत्यमप्रियम्,
प्रियम् च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः॥ 10 ॥
अर्थ– सत्य बोलना चाहिए और प्रिय बोलना चाहिये। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिये और प्यारा झूठ भी नहीं बोलना चाहिये। यही सनातन धर्म है।